Zikr
ज़िक्र होता है तेरा जब
सोचता हूँ क्या लिखूं तब
लिख दूँ कुच्छ ऐसा की
हो जाए अकीदत तुझसे अब
है वो खड़ी सिरहाने उठा रही है तुमको
अब ना सो, कह के जगा रही है तुमको
वक़्त पड़ा तो मुल्क़ की खातिर जिसने अपना खून दिया
जन्नत में क्या रूह को उनकी हमने कभी सुकून दिया
इंतेज़ार में बैठे है के कोई उठेगा गाएगा
वो क्या जाने मुल्क़ ने उनके नाम उन्हे मजनूं दिया
ना थे हम ये जानते
उनमे थी क्या वो बंदगी
खोखली किस नीव पे हम जी
रहे थे ज़िंदगी
“उज़्र के नगमे, तर्क़ की बातें.. यह बिस्मिल का ज़िक्र नहीं….
जब घैर किसी का ज़िक्र किया .. तो हुमको क्यूँ मज़मून दिया”
Vishal
Guys you rock!!!!